Saturday, July 26, 2014

आख़िर कब तक ?

सोलह दिसम्बर 2012 की वह मनहूस रात भुलाए नहीं भूलती। उस पैशाचिक कुकृत्य के बाद हर बार उस जगह से गुज़रते हुए उसका वस्त्रहीन,  रक्तरंजित,  ठंड में ठिठुरता , मौत से लड़ता हुआ शरीर मुझे दिखाई देता था। ख़ौफ़ इस कदर मन में समा गया था कि अपने ही घर में अकेले रहने की हिम्मत नहीं थी। एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने में भी एक अजीब सी दहशत होती थी। रात-रात भर सो नहीं पाती थी। वही दर्दनाक हादसा अपने साथ होता महसूस होता था। आँखें बन्द करते ही उन छ: दरिन्दों का चेहरा,  निर्भया की जगह मैं ख़ुद स्याह शीशों वाली उस सफ़ेदपोश बस में अपना जीवन और देह बचाने के लिए हद से अधिक संघर्षरत,  आत्मा और शरीर पर पड़ने वाली असहनीय चोटों की पीड़ा से कराहती थी। दिन के उजाले में, भरी आबादी में,  जब जनजीवन अपने उफ़ान पर होता है,  ऐसे में भी कोई सफ़ेद रंग की बस देखते ही चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगतीं,  रक्त जम जाता, मानो यह बस भी किसी ऐसे हादसे की गवाह बनने जा रही हो।
मुझे याद नहीं, उस दु:स्वप्न के दुष्प्रभाव से उबरने में मुझे कितना समय लगा था। पर इतना याद है कि उस समय मैं हर घड़ी ख़ुद को नहीं, निर्भया को जी रही थी। अधिकतम तरीकों से न्याय व्यवस्था,  प्रशासन और उस दरिंदग़ी के विरुद्ध मेरा आक्रोश फूट-फूटकर आता था। शायद उस वक़्त वह हादसा मन पर इतनी गहरी चोट छोड़ गया कि उसके बाद उस तरह की कोई ख़बर फ़िर मुझे वैसा नहीं झकझोर पाई। पर न जाने क्यों, उस घटना के बाद ऐसी दरिंदग़ी का मानो सिलसिला ही चल पड़ा। होड़ लग गई हैवानियत के प्रदर्शन की। बर्बरता के नये-नये तरीके ईजाद होने लगे,  मानो एक बच्ची या स्त्री की आत्मा को क्रूरतम तरीके से छलनी करके भी उन्हें वह सुकून न मिला हो जिसकी उन्हें तलाश थी। नर के रूप में ये पिशाच अगर आज निर्भीक विचर रहे हैं, तो इसके लिए वास्तव में दोषी कौन है? वे बच्चियाँ और औरतें, जो उनकी आँखों के सामने आने का दुस्साहस करती हैं, हमारी सड़ी हुई जंग लगी न्याय व्यवस्था ? या ऐसे नेता,  जिन्हें जनता अपनी रखवाली का पूरा विश्वास सौंपकर चुनती है और उनकी तरफ से दरिंदग़ी की इंतहा को मात्र 'लड़कों की भूल' कहकर अपने कर्तव्य से इति कर ली जाती है ?

         मुझे याद है वह जन आक्रोश, जिसकी आग न सिर्फ़ भारत में,  बल्कि विदेशों तक भी फ़ैली थी..  जब जनता एक गूँगी -बहरी सरकार से इंसाफ़ की उम्मीद करने पहुँची और जवाब में उन्हें आँसू गैस, वाटर पाईप और डंडों की बौछार मिली थी। उस समय दिख गया था कि ऐसी अन्याय प्रिय सरकार का पतन निश्चित है और शायद कोई अन्य सरकार होती, तो इतने जघन्य कांड पर मुँह सिलकर बैठने की बजाय कोई ऐसा ऐतिहासिक निर्णय लेती ,जो गुनहगारों के लिए यादगार सबक बन जाए। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सरकार बदलने के बाद भी आये दिन नित नये रूप में हैवानियत नंगा नाच दिखा हमें मुँह चिढ़ाकर चली जाती है और हम कुछ नहीं कर पा रहे। क्यों नहीं उन हैवानों को अरब देशों के बलात्कारियों जैसा कठोरतम दंड दिया जा सकता, जिससे उनके मन में भी उस ख़ौफ़ का कुछ प्रतिशत तो जन्म ले, जो पीड़िता के स्वजनों के मन में हमेशा के लिए रह जाता है ! पीड़िता तो बचती ही नहीं ऐसी नृशंसता के बाद। क्यों नहीं निर्भया कांड के तुरंत बाद ही ऐसे कानून बनाए गए, जो ऐसी दहला देने वाली घटनाओं पर रोक लगा पाते ? और यदि तत्कालीन सरकार ने किसी भी जायज़-नाजायज़ कारण से ऐसा नहीं किया,  तो वर्तमान सरकार की क्या मजबूरी है ऐसा कदम न उठाने के पीछे ?

       सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है,  प्रबुद्ध वर्ग स्त्री-विमर्श के नये-नये मुद्दे ढूँढकर चर्चाएँ व गोष्ठियाँ कर रहा है,  स्वयंसेवी संस्थाएँ और विद्यार्थी मोमबत्ती- मार्च से परिवर्तन लाने की आस में हैं , पुलिस हादसे के बाद लकीर पीटती रह जाती है .... बदला क्या ? महिलाओं व बच्चियों की सुरक्षा का ज़िम्मा किसके हाथ है ? आखिर इन सुलगते सवालों का जवाब किसके पास है ? कितनी और स्त्रियों,  बच्चियों को अपनी बलि देनी होगी कि वे अपना जीवन देकर भी इस व्यवस्था को बदल पाएँ और इस देश में भी स्त्री एक आज़ाद देश के आज़ाद नागरिक की तरह निर्भय,  निश्चिंत होकर जी पाए ..??