Wednesday, March 27, 2013

आक्रोश

इक नपुंसक हुक्मरानों की है 
टोली डर रही !
एकतरफा क़ायदे, इंसानियत है मर रही !!
मख़मली दीवारों के हैं
कान बहरे हो चुके
कौन सी फिर गुफ़्तगू
ये ज़िंदा लाशें कर रहीं ??
ज़ुल्मो सितम की सब हदें
हैं बेकसूरों के लिए
वहशियाना भेडियों की
नस्ल तांडव कर रही !!
चीत्कारें सुन न पाते,
दुर्ग में बैठे हैं जो,
रातदिन दौलत खनकती
कान में बस भर रही !!
तुम लुटेरे हिंद की अस्मत् के हो,
क्या समझोगे ?
मासूम सी इक जान पर
लुटने से क्या गुज़र रही !!
आज जब आवाम के हो
कठघरे में ज़ालिमों,
क्यूँ ज़ुबाँ कटी तुम्हारी,
वादों से मुकर रही ??
होश में आ तानाशाही
वक़्त अब वो आ गया,
अर्थी तेरी उठने में
कोई घडी गुज़र रही !!! 


23/12/12  

 

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