रोज़ तलाश शुरू होती है
मुट्ठी भर जिंदगी की.......
ढूंढती उसे हर शय में
बालकनी की धूप में
बच्चों की मुस्कान में
किसी अपने की बातों में
कुकर की सीटी में
किसी टीवी सीरियल में
मार्केट में दुकान पर
टंगे किसी आकर्षक परिधान में
चटपटे गोलगप्पों में
पर थोड़ी-थोड़ी जोड़ कर भी
उतनी नही है हो पाती
कि एक दिन का
जीना निकल पाए !
जितनी जोड़ पाती हूँ
उसमे में भी रिस-रिस कर
बहुत अल्प रह जाती है
और मैं रह जाती हूँ
रोज़ ही घाटे में !!