Saturday, May 12, 2012

माँ


    निर्झर प्रेम-प्रपात बहाती 
    ममता-मेघ घने बरसाती 
    जीवन कंटक चुभ न पायें 
    यह सोच के उर में हमें  छिपाती
    फिर भी जीवन संध्या में 
    जाने  क्यों एकाकी रह जाती !!

    उसकी दृष्टि ताड़ ही लेती 
    मुस्कान के पीछे की व्यथा 
    हंसी की ओट में छिपे हुए 
    मूक अश्रुओं की कथा 
    किन्तु अपने स्वयं के अश्रु 
    हम सबसे क्या खूब छिपाती 
    अपनी जीवन संध्या में 
    जाने क्यों एकाकी रह जाती !!

   सींचा करती जिन फूलों को 
   अपने रक्त के पोषण से 
   वही फूल कंटक बन जाते 
   न लजाते उसके शोषण से 
   फिर भी क्षमाशील ह्रदय से 
   आह कभी न निकल पाती
   अपनी जीवन संध्या में 
   जाने क्यों एकाकी रह जाती !! 

   माँ तेरा उपकार असीमित
   कुछ भी करके चुका न पाऊं !
   बोल है क्या अनमोल जगत में 
   तुझसा, तुझको जो दे पाऊं  ??
   अपना यौवन तुझको दे दूँ 
   जर्जर तन-मन के बदले 
   ऐसा कुछ कानून बनाऊं 
   फिर कभी न कोई तुझे छले !
   
    तू मुझमें , मैं  तुझमें 
    क्यों नहीं परस्पर ढल जाती !
    फिर देखूं जीवन संध्या में 
    कैसे  तू एकाकी रह जाती !!!
  
   

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