Sunday, March 4, 2012

अशिक्षा का अधिकार !

   वर्तमान परिपेक्ष्य में बहुत सी स्वयं सेवी संस्थायें शिक्षा की गुणवत्ता के पीछे ऐसे हाथ धोकर पड़ी हैं  ,जैसे अन्य कोई मुद्दा ही न बचा हो उनके पास ! उस पर ये दुहाई देते हैं 'शिक्षा के अधिकार' की ! काश, कि  कोई उन्हें बताये कि यह सब किया धरा इस 'शिक्षा के अधिकार' का ही है ! 

                         शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत भारत में ६-१४ वर्ष की आयु वर्ग के हर बच्चे को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार मिला हुआ है। निस्संदेह  इसके पीछे धारणा यही रही होगी  कि शिक्षा नि:शुल्क
रहेगी, तो अभिभावक अपने बच्चों को स्कूलों में अवश्य भेजेंगे, जिससे न सिर्फ शिक्षा का स्तर बढ़ेगा, बल्कि लोगों में जागरूकता भी आएगी। और साक्षरता दर भी बढ़ेगी ! एक पंथ , अनेक काज !  किन्तु वक्त बीतने के साथ-साथ शिक्षा के अधिकार अधिनियम की बुनियादी खामियां सामने आने लगी हैं। बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने के साथ इस अधिनियम में कुछ ऐसे प्रावधान किए गए हैं जिनके कारण शिक्षा का अधिकार-'अशिक्षा का अधिकार'  साबित हो रहा है। पहले किसी बच्चे के किसी कक्षा में फेल होने से यही निष्कर्ष निकाला जाता था कि विद्यार्थी ने या तो पढ़ाई-लिखाई में लापरवाही बरती है, या किसी किन्हीं कारणों से वह उस कक्षा के अधिगम स्तर को प्राप्त नहीं कर पाया है । दोबारा उसी कक्षा में पढ़ने से अध्यापक उसकी कमी दूर करने की कोशिश करता था, जिसके कारण बाद में वही विद्यार्थी अच्छे नंबरों से पास, या कम से कम पास हो जाता था।

              लेकिन वर्तमान शिक्षा के अधिकार अधिनियम  में यह प्रावधान है कि स्कूलों में किसी भी छात्र को इस कारण से फेल नहीं किया जा सकता कि परीक्षाओं में उसके कम अंक हैं या उसकी उपस्थिति  बहुत कम है। जिस दबाव में विद्यार्थी पढ़ाई-लिखाई करता था, वह दबाव ही अब खत्म हो गया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो अधिकतर  अभिभावक और छात्र इस अधिकार का जी-भरकर दुरूपयोग कर रहे हैं। जब जी चाहे, बच्चा विद्यालय आता है और जब जी चाहे, लम्बी छुट्टी लेकर घर बैठ जाता है। क्योंकि वह निश्चिन्त है कि अब कक्षा में कम उपस्थिति से उसका न तो नाम कटेगा और न ही वह फेल होगा। इन खामियों के कारण अध्यापकों
में भी एक प्रकार की निराशा और निरुत्साह व्याप्त है, जिसके  चलते  बच्चों के भविष्य को लेकर वे 
भी फिक्रमंद कम ही दिखते हैं। वे भी केवल खानापूर्ति करने के लिए बाध्य हो गये हैं ! न केवल शिक्षक , अपितु मेधावी छात्रों पर भी इसका दुष्प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है ! उन्हें भी यह बात समझ आ गयी है , कि उनके नियमित विद्यालय आने , और मेहनत से पढ़ने के बाद भी वे नियमित विद्यालय न आने वाले और न पढने वालों छात्रों के मुकाबले बहुत अधिक अंतर से पास नहीं होंगे ! 

                सबसे बड़ी दूसरी खामी जो सामने आई, वह यह है कि कुछ विद्यार्थियों ने एक ही समय में एक से अधिक स्कूलों में प्रवेश ले रखा है। वे कुछ दिन एक स्कूल में जाते हैं और कुछ दिन दूसरे में। शायद इसका
कारण  उन्हें सरकार से मिलने वाली वर्दी की राशि , नि:शुल्क किताबें और कापियां तथा भिन्न -भिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियाँ हैं ! अब जिन घरों में दो वक्त का खाना जुटाना मुश्किल हो, उन्हें इतना सब सरकार से मुफ्त में मिले, तो वे क्यों नहीं इसका दोहरा-तिहरा लाभ उठाएंगे। सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि ऐसे दोहरे-तिहरे प्रवेश वाले बच्चों का पता लगा पाना मुश्किल है। क्योंकि "शिक्षा के अधिकार" के चलते कोई स्कूल इन्हें प्रवेश देने से मना नहीं कर सकता। और कोई ज़रिया भी नहीं  है, प्रवेश के समय यह जांचने का, कि बच्चा किसी और स्कूल में नामांकित तो नहीं है।  

                       


     
                    
                    ऐसे जाने कितने ही प्रकरण होंगे , जो दाखिला करते समय स्कूल अधिकारियों की जानकारी में नहीं आ पाते ! और इसकी क्या गारंटी है कि उन बच्चों ने किसी तीसरे स्कूल में दाखिला नहीं ले रखा होगा,  और हर स्कूल में कुछ-कुछ दिन के लिए जाकर उपस्थिति दर्ज़ करवा लेते होंगे । अब ऐसे छात्रों और अभिभावकों की  'शिक्षा के अधिकार'  के नाम से जो लाटरी निकली है, इसमें अगर  कुछ नदारद है , तो वह है -'शिक्षा' । क्योंकि छात्रों और अभिभावकों को हर तरह के प्रलोभनों ( निशुल्क वर्दी, कापी, किताबें , पानी की बोतलें , पका हुआ खाना ) के साथ- साथ नयी शिक्षा-नीतियाँ  भी उन्हीं के पक्ष में बनायीं जा रही हैं- जिनसे कि अनुशासन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। यह बात किसी से छिपी नही है कि  अनुशासन और शिक्षा का आपस में क्या नाता है। इन नीतियों के तहत अनुशासनहीन छात्रों को दंड देना तो दूर, उन्हें डांटना भी अपराध है।

                            नयी शिक्षा नीति -१९९६ के अंतर्गत जिन न्यूनतम अधिगम स्तरों की बात कही गयी थी, उनकी भी धज्जियाँ उड़ चुकी हैं। चाहे छात्र कुछ सीखे , न सीखे , अध्यापक उस पर दबाव नहीं डाल सकता। उसे बस अपनी खाना-पूर्ति करनी है , क्योंकि कोई भी बच्चा फेल नही होगा, यह बात बच्चे भी अच्छी तरह से समझ चुके हैं , और अध्यापकों को भी मजबूरी में हजम करनी पड़ रही है। अब, जब वे यह जान गये हैं कि उनकी मेहनत और लगन से दी गयी शिक्षा का कोई मोल नहीं रह गया है, उनमें भी पढ़ाने की इच्छा दम
तोड़ती जा रही है। उन्हें इस बात का भी दुःख है कि अब वे योग्य छात्रों के साथ न्याय नहीं कर सकते, क्योंकि वे मेधावी और कमजोर बच्चों , सबको एक ही लाठी से हांकने के लिए मजबूर हैं।
                           किन्तु दुर्भाग्यवश शिक्षा के ठेकेदार या तो इन सबसे बेखबर हैं , या फिर उदासीन।  'शिक्षा के अधिकार' के चलते यह नौबत आ गयी है कि  अपने देश में शिक्षा के आंकड़ों को ऊंचा दिखने के लिए ऊपर से लीपा-पोती की जा रही है, किन्तु उसकी आड़ में शिक्षा की जो गुणवत्ता गिरती जा रही है, उसकी ओर से सरकार ने ऑंखें मूँद रखी हैं !

                  काश कि सरकार दुनिया पर इन आंकड़ों का झूठा पर्दा डालने की बजाय अपने नन्हें-मुन्हों के भविष्य पर ध्यान दे, जिनके हाथों में देश का भविष्य है और बाहर से लीपा-पोती करने की बजाय घर के
अंदर फैलती अशिक्षा की दीमक को रोकने में रुचि  ले।

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