Saturday, March 3, 2012

ज़िन्दगी

  ज़िन्दगी क्यों यूँ  परेशां नज़र आती है हमें
  बनके क्यों लौ ये दिए की , यूँ जलाती है हमें .......
               हमने तो इसको मरहम दिया, हमदर्द बने
               फिर भी क्यों इतना ये बेदर्द सताती है हमें !
  ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
               हम तो समझे थे की बस इसका ही सहारा है
               ये तो अपने से बहुत दूर भगाती है हमें !
  ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
              कितनी संगदिल है , आँखों की तरह सूनी है          
              फिर भी क्या चीज़ है, जो इतना रिझाती है हमें !
  ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
               जब भी कुछ ज़िक्र चला हमसफर या हमदम का
               खौफ़ क्यों होंठ पे लाने से दिखाती है हमें  !
   ज़िन्दगी क्यों यूँ परेशां नज़र आती है हमें.......
   बनके क्यों लौ ये दिए की , यूँ जलाती है हमें .......
                

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना है आपकी,रचना जी.
    दिल की गहराई से निकली,दिल को छूती हुई.

    आभार.
    होली की अग्रिम शुभकामनाएँ.

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  2. Iske liye bs ek shbd h
    !!!..lajawaab..!!!
    :-):-):-)

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