Friday, September 21, 2012

' किसकी आज़ादी ??'


       

      आज़ादी का दिन है आया
      फिर झंडा फहराएंगे
      विद्यालयों में ड्रम की ताल पर
      जन-गण-मन-गण गाएंगे !
      पर किसकी आज़ादी है ये
      यही समझ न पाएंगे
      बूढ़े एक रिवाज़ की भांति
      इसे  मनाते  जायेंगे !!
      आज़ादी की परिभाषा
      उस ललना से पूछो तो
      जिसके रक्तपान पर तुम
      अंकुरण से अब तक जीवित हो !
      अंतर केवल यही रहा
      शैशव में रक्त था स्नेह भरा
      पर वही शिशु जब पुरुष बना
      स्वार्थ में, मद में चूर हुआ !
      भूल गया वह नारी थी,
      जिसने उसका पोषण किया
      उसीका पत्नी, पुत्री रूप में
      यथाशक्ति शोषण किया !!
      तन पर, मन पर , जीवन पर
      चुन-चुन कर उसने वार किये
      वह मूक, मौन सहती रही
      जीवन-क्षण उस पर वार दिए !!
      कभी बिकी बाज़ारों में
      कभी चिनी दीवारों में
      मोहरा बनी रही , जब आई
      सत्ता के गलियारों में !!
      उस पर ही कानून बनाये
      धर्म  के ठेकेदारों ने
      ज़ुल्मों के कहर भी ढाए, तो देखो
      उसीके पहरेदारों ने !!
      क्या अब भी ये कहते हो,
      आज़ादी का दिन आया ?
       नहीं , तब  तक नहीं
       जब तक है उस पर काला साया !!
       कुछ बदला है, कुछ बदलेंगे
       हालातों का सरमाया
       तभी कहेंगे सच्चे दिल से
      "आज़ादी का दिन आया !!"
        14/8/12
    
    
   
    
    

Friday, September 14, 2012

हिंदी


   

  हिंदी हमारा गौरव है , हिंदी हमारी शान है
  हिंदी हमारी परिचायक, हिंदी ही पहचान है !
  यही हमारी मात्रभाषा , यही हमारी राष्ट्रभाषा
  इसका और प्रचार करें हम, यही हमारी अभिलाषा
  हिंदी की आधारशिला पे खड़ा ये हिदुस्तान है
  हिंदी हमारा गौरव है , हिंदी हमारी शान है !!
            लेखकों की रचनाएँ, महाकवियों की कविताएँ
           हिंदी में अनुवादित होकर ज्ञान का अमृत बरसाएँ
           हिंदी के कारण ही बने सब वेद और ग्रन्थ महान हैं
            हिंदी हमारा गौरव है , हिंदी हमारी शान है!!
  देश के कोने-कोने को एक सूत्र में जो जोड़े
  उस हिंदी की महिमा में स्तुति शब्द भी हैं थोड़े
  मानव की देन न मानो, यह शारदा का वरदान है
  हिंदी हमारा गौरव है , हिंदी हमारी शान है !! 
           मानस-मन आलोकित करती, ज्ञान का भंडार है
           सरस्वती के उपासकों को विद्या का उपहार है
          विद्या के इस ज्ञान पुंज पर हम सबको अभिमान है
          हिंदी हमारा गौरव है , हिंदी हमारी शान है !!
           sep. 1992

Friday, August 10, 2012

कृष्ण


     

         " कान्हा "

      नटखट कान्हा मनभावन 
      मोहक छवि, चंचल नयन
      गोकुल बलिहारी जिस पर 
      ऐसी है उसकी चितवन  !!

      गोपियों का वह चितचोर 
      राधा का अटका उसमें मन 
      वो है तो हर्षित नर-नारी 
      उसके बिन सूना मधुबन !!

      माखन चोरी का भोलापन 
      श्रीदामा से ह्रदय मिलन 
      उसी कृष्ण की गाथा हैं 
      जिसने दिया गीता प्रवचन !!

      कंस, पूतना तार दिए सब 
      दुष्टों का कर दिया दलन
      हे कृष्ण फिर आ जाओ तुम 
      धरती को कर दो पावन !!

      हे मधुसूदन , भूल गये क्या 
      तुमने जो था दिया वचन ?
      "जब -जब पाप का बोझ बढ़ेगा,
      आऊँगा करने दमन !"

      धरती करती है आह्वाहन 
      आ भी जाओ देवकी नंदन 
      फिर लाज बचाओ भारत की 
      फिर छोड़ो अपना सुदर्शन !!! 
      
      
     
      

      
       
       
     
      
      
      

Wednesday, August 8, 2012

'अतीत के पंछी'



    अतीत के पंछी
    उड़-उड़कर आते हैं 
    यादों की बालकनी में !
    पर जब भी बढाऊँ हाथ 
    उन्हें छूने, पकड़ने को 
    फुर्र से उड़ जाते हैं 
    उसी अतीत के नभ में !
    अहसास मुझे दिलाते 
    कि वे कितने उन्मुक्त हैं 
    मेरी पकड़ से !
    पर मैं ?
    मैं तो उन्मुक्त न हो पाई 
    अतीत की बेड़ियों से 
    जो अब भी हैं डाले 
    बंधन मेरे पाँव में 
    कुछ कदम चलते ही 
    खिंच जाती हूँ पीछे 
            या 
    आगे बढने की चाह में 
    गिर जाती हूँ 
          पर 
    पंछी नहीं बन पाती हूँ !!!

    
   
    
    
  

Friday, August 3, 2012

" धरा और मानव "



     
         
       " धरा और मानव "

        हे   धरा, तू ये बता 
       कब तक पियेगी तू हला ?
       तू नारी है, तू मात्री  है,
       तू धरणी है , तू वत्सला  !
 
        करता वही शोषण तेरा ,
        करता वही दोहन तेरा ,
        पोषित हुआ है जो युगों से 
        सीने पे तेरे हल चला !
        कब तक पियेगी तू हला ?

        कसमसाती, चोट खाती 
        अन्तः में ही कुलबुलाती 
        न कोई आया कि जिसने 
        घाव पर मरहम मला !
        कब तक पियेगी तू हला ?

        तू सहेजे प्रकृति का 
        सौंदर्य अपने वक्ष पर 
        ममत्व और करुणा सदा ही 
        रहे हैं तेरे अक्ष पर 
        जिसको तूने दी शरण है ,
        उसने ही तुझको छला  !
        कब तक पियेगी तू हला ?

        तू मूक है , तू मौन है 
        तेरे लिए सब गौण है 
        पीड़ाएँ तुझको जब मिलीं ,
        तब भी किया तूने भला !
        कब तक पियेगी तू हला ?

        तू भास्कर की प्रेयसी 
        तू शस्य- श्यामल  देह सी 
        स्वार्थ मद के अंधों ने 
        यौवन है  तेरा दिया जला !
        कब तक पियेगी तू हला ?

        तू जननी भी है, भगिनी भी 
        तू वेदना की हरणी भी 
        है गर्भ से तेरे हमें ही 
        अन्न का हर कण मिला !
        कब तक पियेगी तू हला ?

        माँ मुझे आशीष दे 
        उपकार तेरा तार दूँ 
        लौटा  सकूं तुझको छवि 
        पहले सी स्निग्धा, निर्मला !!
        न पीने दूंगी अब हला 
        क्योंकर पियेगी तू  भला ?
         हे   धरा , तू ये बता 
        कब तक पियेगी  तू हला !!!
       
       
       
        

Sunday, July 29, 2012

लोकपाल बिल ले आओ !!!



         

     

         ताक पर रख कर अपने प्राण 
         कोई हुआ जाता निष्प्राण 
         ऐ भ्रष्टाचारियों होश में आओ 
         होने दो देश का कल्याण !!
         तुम्हे नही कुछ पीड़ है होती 
         क्योंकि तुम हो तृप्त से बढकर 
         उनका भी तो सोचो ज़ालिम 
         जो करते उपवास वर्ष भर !
         उनका भी हक है रोटी पर 
         उनमे भी होती है जान 
         जाने दो उन  तक भी निवाला 
         होने दो देश का कल्याण !!
         जिन गरीब हाथों की बदौलत 
         तुम कुबेर बन बैठे हो 
         जिस मद में अंधे होकर के 
         आज नशे में ऐंठे हो 
         उनका पैसा वापिस लाओ 
         उनके भी हैं  कुछ अरमान 
         होने दो देश का कल्याण !!
         हम अहिंसा पर ही टिके हैं 
         किन्तु यदि गया कोई प्राण 
         सत्याग्रह के आन्दोलन में
         यदि गंवाई किसीने  जान 
         तुम हत्यारे कहलाओगे 
         कभी न माफ़ी प़ा पाओगे 
         अब भी है वक्त सम्भल जाओ 
         लोकपाल बिल ले आओ 
         लोकपाल बिल ले आओ !!!

Saturday, July 28, 2012

मैं खंड-खंड हूँ !


         
     


     
     
        प्रिय तुम कहते हो  

        और सह न पाओगे 

        बिखर जाओगे 

        खंडित हो जाओगे !

        किन्तु मेरा अधिक न बिगड़ेगा 

        क्योंकि मैं तो हूँ ही खंडित 

        हाँ ! सत्य सुना तुमने !

        मैं खंड-खंड हूँ !

        तुमने है चाहा खंडों को 

        जो रह चुके हैं कभी चूर्ण 

        और अब तक न 

        हो सके पूर्ण !

        अतः मैं भयभीत

        हो जाती हूँ 

        यह सोचकर कि 

        तुम्हारी वही परिणिति न हो 

        तुम चूर्ण न बनो कभी 

        तुम पूर्ण ही रहो सदा 

        तुम पूर्ण ही रहो सदा !!!

Friday, July 27, 2012

बुढ़ापे का फल


           
           आओ सखी मंगल गान गाएँ
           आओ री तोरण-द्वार सजायें
           बूढ़े वृक्ष पे फल आया है 
           उस पर हम बलिहारी जाएँ !

           क्या है अवस्था, क्या है आयु 
           यह सब बातें बेमानी हैं 
           उजड़ा चमन भी लहराता है 
           यह बात अब समझ ही जाएँ !
     
            खुला है बंद पिटारा कबसे 
            हुआ है उसका भाग्योदय 
            मिलें डाल से बिछड़े सुमन सब 
            इसी दुआ में हाथ उठायें !
      
            देर हुई , पर मिला न्याय तो 
            उसकी लीला अपरम्पार 
            सब खोये अधिकार मिलेंगे 
            और मिलेगा पिता का प्यार !
        
              जाने और कितने ही ऐसे
              लावारिस हैं फूल बाग़  में 
              उनको भी माली  मिल जाये 
               तो वे भी शुकर मनाएं !

             आओ सखी मंगल गान गाएँ
              आओ री तोरण-द्वार सजायें
             बूढ़े वृक्ष पे फल आया है 
             उस पर हम बलिहारी जाएँ !
         

" टूटा फूल "


             

          आज सुबह जब निकली घर से 
          बागीचे से रही गुज़र
          एक नन्हीं आवाज़ से चौंकी 
          था बच्चे के रोने का स्वर !
          इधर-उधर जब ढूँढा मैने 
          प्यारे से एक फूल को पाया 
          लेकिन महका, खिला नहीं था 
          वह  था टूटा, कुम्हलाया !
          प्यार से मैने उसे उठाया ,
         "क्यों रोते हो नन्हें सुमन ?
         बोलो तुम्हे है किसका डर ?"
         सहम, सिमट कर बोला मुझसे 
         "मुझे लगा दो डाली पर !
          मैं भी उन फूलों की तरह 
          डाली पर खिलना चाहता हूँ ,
          पंखुड़ी एक टूटी, तो क्या 
          सबसे मिलना चाहता हूँ !
         कोई झोंका  हवा का आया 
         और पंखुड़ी तोड़ गया 
         पर मैं तो अब भी फूल ही हूँ 
         इसमें मेरा दोष है क्या ?"
         उसकी बातों का मर्म मुझे 
         अंदर तक झकझोर गया 
        अनचाहे ही ध्यान मेरा 
         ऐसे बच्चों की ओर गया, 
        जिन्हें समय ने वंचित रखा ,
         पंखुड़ी रुपी अंगों से 
         और साथ ही वंचित रखा 
        सपनों के सतरंगों  से !
        क्यों नहीं भला ये जुड़ सकते हैं 
        फूल ये अपनी डाली से ?
        क्यों बिछड़ना है जरूरी 
        इनको अपने माली से ?
        हम उनके माली बन जाएँ 
        और ये संकल्प लें 
        सब बच्चों के संग ही 
       इनको भी हम शिक्षा दें !
       कोई कमी न आड़े आए
       कभी भी इनकी प्रगति में 
       वक्त पड़े तो एक-दूजे के 
       आँख और कान ये बनें !
       इनमे भी वो जोश है 
       कुछ कर-गुज़र ये जायेंगे 
       ये हैं तारे इस ज़मीन के 
       रौशनी फैलायेंगे !!!

         

Friday, July 6, 2012

" अमानत "



          

  वो लाये थे तूफ़ान से कश्ती निकाल के 
  चाहा था रखें देश को अब हम सम्भाल के 
  दे दी थी अपनी जान उन्होंने निकाल के 
  हुए शहीद पूत वो भारत विशाल के !!!!
       
         हमने मगर न देश का कोई चलन किया 
         खुदगर्जों का  नेता के रूप में वरण किया 
         बहके हमारे पुरखे भी उस भेड़-चाल से 
         कैसे रखें बताओ अब वतन सम्भाल के !!!


  गुलामी की जंजीरों से कब भी कहाँ बचे 
  षड्यंत्र सत्ताधारियों ने खूब हैं रचे 
  अब भी हैं फिरंगी तो हमवतन की खाल में 
   कैसे रखें बताओ अब वतन सम्भाल के !!!

          दीमक लगी जो देश को, उसको हटाना है 
          चर्बी चढ़ी लालच की जो, उसको घटाना है 
          सोने की चिड़िया को मुक्ति दिलानी है जाल से 
           तब ही बचेगा मुल्क ऐसे जीर्ण हाल से !!
            वो लाये थे तूफ़ान से कश्ती निकाल के 
            हम को ही तो रखना है इसे देख-भाल के !!!

बरसो रे मेघा !!!


 

   
  इतना भी मत तरसाओ 
      कि कमी तुम्हारी न खले
      बहुत देख ली राह तुम्हारी 
      आ जाओ चुपचाप चले !
              कहीं बरस के हद कर देते 
              कहीं की तुम लेते न खबर 
              कहीं ठिकाना बन जाता और 
               कहीं पकड़ते भी न डगर 
              बहुत हो गयी मनमानी अब 
              आओ के सूखा टले !
              बहुत देख ली राह  तुम्हारी 
              आ जाओ चुपचाप चले ........
    .                    इतने नखरे भला हैं  क्यूँकर 
                         हमको भी तो बतलाओ 
                        क्या कोई मांगें  हैं तुम्हारी 
                         ऐसा है, तो फरमाओ
                         इन्सां गर गर्मी न बढ़ाये 
                         दाल तुम्हारी भी न गले 
                        बहुत देख ली राह  तुम्हारी 
                       आ जाओ चुपचाप चले ........
    
  
   
              
              
             
            

Thursday, July 5, 2012

प्रतीक्षा

 

 
सजन तुम बिन कैसा सृजन ?
देव बिन कैसा भजन ?
पायल की झनकार हो क्यूँकर
क्यूँ हो चूड़ियों की खन-खन ??
किस लिए काजल लगाऊं
किसलिए बिंदिया सजाऊं
किस लिए श्रृंगार करूं मैं
किसे रिझाने का करूं जतन ??
हैं शब्द टूटे, क्या करूं
हैं गीत रूठे, क्या करूं
क्योंकर मनाऊं उनको मैं
न दिखता है कोई प्रयोजन !!!
न भाती है सरगम कोई
न सुहाता मौसम कोई
न ही दिखती आसकिरण
मन घूम आता दूर गगन ...............
उन अधूरे स्वप्नों का
एहसास छलता है मन को
पूर्ण करने के लिए
किया था जिनका चयन !!!
बोलो क्या कहूँ इनसे
कितनी अवधि तक रुकें
ये चूड़ी, बिंदिया, गीत, मौसम
तुमको बुलाते हैं सजन !
कब दोगे इन्हें दर्शन ??
कब दोगे मुझे दर्शन ??

Sunday, June 17, 2012

विरह की पीड़

 विरह की पीड़ जो दी तुमने 
उसको व्यर्थ न जाने दूंगी 
इस अग्नि से उपजे शब्दों को
मालाओं में मैं गूंथुंगी........
बीते क्षण हैं तैर रहे
चलचित्र की मानिंद
मेरे मन के सूने से मानसपटल पर
पढ़ती हूँ संदेश तुम्हारे वही पुराने
नित-नवीन भावों, अर्थों को बदल-बदल कर
तुमसे जितने भी मेरे सम्वाद हुए
उनकी गूँज कहीं मन में है, उन्हें सुनूंगी
विरह से उपजे शब्दों को कविता में गूथुंगी !!
वह सहमति -असहमति, तकरार, विवाद
वह नोंक-झोंक, वह झूठा गुस्सा, फिर अनुराग
फुरसत के पल रात-रात भर साथ जागना
अपनी खुशियाँ, अपने आंसू तुमसे बांटना
क्यों लगता है वह सब कभी भी न भूलूंगी ?
विरह से उपजे शब्दों को कविता में गूंथुंगी !!
यही शेष था-विरह का अनुभव करना
बिना तुम्हारे कुछ दिन जीवन-यापन करना
बांधकर खुद को देखना अपनी हदें
सृष्टि के नियमों का पालन करना
अब देख रही हूँ क्या निष्कर्ष रहा इनका
था कबसे मन में कभी तो ये प्रयोग करूंगी !!
विरह की पीड़ जो दी तुमने
उसको न मैं व्यर्थ करूंगी !!!!


  

आंसू



    Blue Eye Tears
      'आँसू '
   क्यों कोरों से ही डरकर 
   वापिस लौट जाते हैं 
   क्यों खुलकर नयनों से 
   बाहर नहीं आ पाते  हैं !!
   इतने मूक  होकर के भी 
   सारी व्यथा सुनते हैं
   कितने जख्मों को न जाने 
   कबसे खुद में समेटे हैं 
   एक सिरा खुलते ही जैसे 
   सारे बिखरे जाते हैं 
   बंधन में मैं रखना चाहूँ
   ये खुलकर बहना चाहें 
   पर जब इनको मुक्ति दूँ 
   उस पल न बहना चाहें 
   शायद कोई भय है इनको 
   या प्रीत है मेरे नेहों से 
   बिन बरसे ही सघन हो रहे
   नीर भरे कुछ मेहों से !
   जो भी हो, मुझको लेकिन 
  अपना फर्ज़ निभाना है 
   इनको प्रेम-प्यार से अपने 
   दिल में पालते जाना है
   नादाँ , चंचल समझ न पाते 
   किस से कितना बतियाना है 
   जब तक ये परिपक्व न होंगे 
   तब तक यहीं बसाना है !!
   
  

Friday, June 8, 2012

सत्यमेव जयते


    


    देखी उड़ान उसकी तो
    क्यों दिल दहल  गये 
    अनगिनत हैं तीर क्यूँ 
     छाती पे चल गये !
    थे मुरीद जाने किस 
    ज़माने से उनके 
    तेवर जो देखे उनके 
    तो हम और मचल गये !
    है हौसला या है जुनूं
    क्यों फेर में पड़िए
    ये देखिये के पत्थरों के
    दिल पिघल गये !
    जाने कशिश थी कैसी
    उसकी सदाओं में 
    खामोश कब से थे जो
    वो पर्वत भी हिल गये !
    था चला अकेला अपनी 
    जानिब-ए-मंज़िल
    अब देखिये तो 
    कितने कारवां में जुड़ गये !
    है चमकता तारा 
    सुनहरे फलक का वो 
    नूर डाला ऐसा
    अँधेरे भी जल गये !
    हैं दुआएं सबके दिलों की 
    उसीके संग 
    बिगड़े रवाज-ओ-रस्म को   
    पल में बदल गये !
    चलते थे बहकी चाल जो 
    कैसे सम्भल गये !
    बेरंग थे जो बुत 
    उसके रंग में रंग गये !!

इस विनिमय में क्या रखा है ?

       

      तुम करो मुझसे प्रेम-निवेदन 
      मैं स्वीकार न कर पाऊं 
      तुम दो उलझन मुझको 
      मैं हताशा दे जाऊं 
      इस विनिमय  में क्या रखा है ?
      सब जानकर अनजान बनो 
      देखकर अनदेखा करो 
      भेजो  नित प्रेम संदेशे 
      मैं शून्य ही लौटा पाऊं
      इस विनिमय  में क्या रखा है ?
      झूठी आशाएं तुम बांधो 
      स्वयं ही खुद को प्रलोभन दो 
      फिर दोष मुझे तुम इसका दो 
      बिन मेरे कुछ भी दिए 
      मेरी ओर से खुद को दो 
      इस विनिमय में क्या रखा है ?
      देते रहो निस दिन उलाहने 
       ध्यान मेरा तुम पाने को 
      मैं न ध्यान ज़रा भी दूँ 
       तुम्हें यही समझाने को 
       मत करो वक्त ज़ाया अपना 
       इस विनिमय में क्या रखा है ?
       इस पर अब विराम लगाओ 
      या तो सुलह का हाथ बढ़ाओ
      या फिर अपने रस्ते जाओ 
      इस विनिमय में क्या रखा है ???

Thursday, June 7, 2012

यथार्थ या परिकल्पना


       क्या है अधिक मधुर, बोलो 
      यथार्थ या परिकल्पना ?
      वह यथार्थ , जो पूर्ण हुआ 
      साक्षात् हुआ , भुक्त हुआ 
     ज्ञात हुआ,  अनुभूत हुआ ?
     या जन्म दे गया कल्पना को 
     अपूर्ण, अतृप्त , शेष रह कर !!
      दे गया है एक असीमित परिधि 
      अपने रंगों से रंगने को 
      अपनी उड़ान खुद भरने को 
      अपने  आकाश को  छूने को 
       राह में आए मोड़ों को 
      अपने अनुसार ही मोड़ने को 
      अपनी इच्छा तक जीने को,
      या इच्छा  का दम तोड़ने को ......!!
      है आकर्षण यह अज्ञात का 
      अथवा है असीम होने का 
       है संतोष न पाने का 
       या असंतोष कुछ खोने का .......?
       क्या है अधिक मधुर, बोलो 
       यथार्थ या परिकल्पना ?

     
   
      

     वादों की जिस केंचुली को उतार फेंका तुमने 
      वही केंचुली अब मेरी खाल है !
  
    

 तोड़ते, चरमराते रहो तुम मुझे ....
     मैं भी पारा हूँ , फिर से जुड़ जाउंगी 
  

Friday, June 1, 2012

न आज़माओ

       
        " न आजमाओ "
       और अवाम को न आज़माओ 
       सत्ताधारियों बाज़ आ जाओ 
       चुक गयी है सहनशक्ति अब 
       कहीं पे तो विराम लगाओ !!
             जीने लायक नहीं कुछ छोड़ा 
             न ही ज्यादा, न ही थोड़ा
             खुद महलों के भोग करो तुम 
             हमसे छप्पर भी ले जाओ 
             कहीं पे तो विराम लगाओ !!
    पानी, बिजली, ईंधन सब पर 
    इतना 'कर' कर दिया है क्यूँकर 
    हवा-प्रकाश जो देती कुदरत 
    उनको भी क्यूँ मुफ्त दिलाओ 
    कहीं पे तो विराम लगाओ !!
             कितना बड़ा है उदर तुम्हारा ?
             कितने में बोलो होगा गुज़ारा ?
             जिस जनता ने चुना है तुमको 
             उसी को लूट-खसोट के खाओ !
             कहीं पे तो विराम लगाओ !!
    अभी तो जागा है एक अन्ना 
    बोलो क्या है तुम्हारी तमन्ना ?
    सौ करोड़ अन्ना बन जाएँ 
    उस सैलाब में तुम बह जाओ ?
    कहीं पे तो विराम लगाओ !!
              इक दिन घड़ा सभी का भरता 
              'वो' सबका इन्साफ है करता 
               ऐसा न हो अगले दशहरे
               तुम रावण का पात्र निभाओ 
               कहीं पे तो विराम लगाओ !!
               सत्ताधारियों बाज़ आ जाओ  !!!